Friday, November 6, 2009

पापा का जूता


कल पापा ऑफिस जाने से पहले जूता पहन रहे थे, पापा को रोज ऑफिस जाते देखता हूँ , तभी मेरे कान खड़े हो जाते है , पापा के साथ बाहर जाने के लिए मै भी जिद करता हूँ , मेरे लगातार और निरंतर जिद के आगे अब पापा ने आत्मसमर्पण कर दिया है और अब रोज वो मुझे लेकर ही नीचे जाते है . अब रोज पापा के साथ नीचे तक जाता हूँ पापा को छोड़ने के लिए, उसी थोड़े से वक्त में मेरा दिल लग जाता और उसी दौरान मुझे थोडा खेलने को मिल जाता है. खैर अब बात पापा के जूते की बात करता हूँ , तो पापा ऑफिस जाने से पहले रोज जूता पहनते है , कल मैंने सोचा क्यों ना जूता मै भी ट्राई करू और यही सोचकर मैंने अपने दोनों पैर जूते में डाल लिए और चलने लगा , मुझे ऐसा करते देख पापा समेत सभी हंसने लगे, मैंने सोचा जरुर कुछ अच्छा हुआ है और मेरे चेहरे पर भी मुस्कान आ गयी.









6 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

वाह ...बेटा!
बड़ों को देख-देखकर ही तो बच्चे सीखते हैं।

pakhi said...

papa ka nahi madhav ka juta.

Anonymous said...

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Well written Madhav!!

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कल पापा ऑफिस जाने से पहले जूता पहन रहे थे, पापा को रोज ऑफिस जाते देखता हूँ , तभी मेरे कान खड़े हो जाते है , पापा के साथ बाहर जाने के लिए मै भी जिद करता हूँ , मेरे लगातार और निरंतर जिद के आगे अब पापा ने आत्मसमर्पण कर दिया है और अब रोज वो मुझे लेकर ही नीचे जाते है .
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